Friday, March 16, 2012

DOST SANDIP


जीवन निरंतर ब़ढता चला जा रहा है. और इक्ठ्ठा करता चला जा रहा हूँ मैं अतीत की राख का ढेर. राख ना अच्छी होती है ना बुरी, बस राख होती हैं. उसको हम सब ढोते है और कभी कभी थकान भी महसूस होती है. मैं भी एसा अनुभव कर रहा हूँ. इसलिए थो़डी सी राख पन्नों पर उडेल कर थोडे से बोझ से निजात पाने का प्रयास है.

डीटीसी बस में सफर कर रहा था और सीट पर बैठा था. सीट पर बैठने की बात इसलिए दर्ज कर रहा हूँ क्योंकी बाई तरफ की सारी सीटों पर महिलाए अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ कर बैठती है और दाई तरफ की सीटों पर अगर कोई महिला बैठी हो तो आप उनसे यह नहीं कह सकते कि यह पुरुषों के लिए है.

मेरी सीट के बगल में एक व्यक्ति खडे था. उम्र करीब 40 के आसपास होगी. उन्होने एक बैग थामा हुआ था. बैग जरुर भारी था क्योंकि वह उसे थोडी देर थामे रहते और कुछ क्षणों के लिए रख देते. बैग का हैंडल एक लम्हे को भी हाथ से ना छूटता. इस के कारण वो थोडा झुक कर खडे थे और उनकी शर्ट के कालरों पर पसीने ने तूफानी लहरों जैसे निशान छोड दिए थे. एक अच्छा संयोग यह हुआ की वो खडे-खडे थक गए थे और मैं बैठा-बैठा. मैने अपनी सीट उन्हे दे दी. वो लपक कर बैठ गए और किसी प्रकार का संवाद भी नहीं घटा.

मेरी मंजिल अभी पास नही थी और मंजिल पर पहुंचने का कोई जुनून भी सवार ना था. अकेला रहता था दिल्ली-यूपी बार्डर स्थित अशोक नगर ठेके के पास. दिल्ली और यूपी के दरमियान शराब की कीमतों मे जमीन आसमान का फर्क है. अशोक नगर की पहचान ही वह ठेका है. नॉयडा के काल सैंटरो से जो नौजवानो का काफिला छूटता है, वह अशोक नगर ठेके पर आकर ही थमता है. खव्वाहिशो में सर से पाव तक डूबे नौजवान ठेके के सामने लगी खाने की रेढीयों पर ही पैग बनाते और नशे में डूब जाते. वहा इतनी भीड होती के कई बार जी में आया की पत्रकारिता छोड एक रेडा मैं भी लगा लू......

दोस्त के नाम पर मेरा एक ही दोस्त था संदीप. वो एक हुनर मे माहिर था. उसे सुर्ती चुना लगाकर बनानी आती थी. वह भागलपुर का रहने वाला था, जंहा के थे इस शताब्दी के बैहतरीन लेखक शरद. यह भी एक मुख्य कारण था हमारी पक्की दोस्ती होने का. शेर शायरी के शौकीन दोनो थे इसलिए हमारी पहली भेट दरियागंज के एक मुशायरे में हुई. जब मैं मुशायरे में पहुचा तो चाय वाले भी अपनी दुकान बढा कर सीट हडप चुके थे. एक नजर दौडाई तो हमने अपने मित्र को एक दीवार पर बैठ कर किसी शायर के शेर पर दाद देते पाया. दाद देने के बाद वह सुर्ती घिसने लगे. मैं उनके पास पहुंचा और उनकी तरफ हाथ बढाया. उन्होने सुर्ती मूंह में सूडी और उस दिन जो उन्होने मेरा हाथ थामा वो साथ सदैव बरकरार रहेगा.

वह इनजिनियरिंग की पढाई चेन्नइ से पुरी कर के आए थे और दिल्ली में नौकरी तलाश रहे थे. हालत पतली होने के कारण जामा मस्जिद के पास एक पतली सी गली में उन्होने सर के लिए छत ढूंढ ली थी. पर उस छोटे से हरे कमरे में थी बेशुमार दौलत. गोरखी, चेखव, ऑयन रैंड....किताबों का हुजूम....मुशायरे के बाद मै उनके साथ उन्ही के घर लौटा....सोने का सवाल ही पैदा नहीं होता था..गोरखी की किताब 'मेरा बचपन' के साथ रात कब गुजरी पता ही ना चला. अगर साथ अच्छा हो तो जीवन में ना रात होती है ना दिन..... बस होता है जीवन..

सुबह छ बजे जामा मस्जिद के पास चाय पीते खुदा ने दो सवाल जहन में इजात किेए. एक " कि क्या मैं गोर्खी की मेरा बचपन कुछ दिन के लिए मांग कर संदीप से विदा लू या....".....दस बजे तक हम ने सारी किताबे बांधी, कुछ कपडे और एक सोने का बिस्तर आटो में ठूस 11:30 मेरे घर पर उतार लिया...चार महिने ही साथ रहना हो पाया...किताबे पढते सुर्ती लगाकर और फिर लम्बी चर्चाए...जिस नौकरी की तलाश में संदीप यहा आए थे उसी तलाश को साथ लिए वह लौट गए.. शरद जी का आखरी परिचय आधा ही खत्म हुआ था जब वह लौटे और मेरे घर में अगर कोइ मेरा इंतजार कर रहा है तो वह है वही उपनयास जिसका 145 वा पन्ना मुडे मुडे थक गया है...वैसा ही जैसा मैं बस में बैठा बैठा..उस शाम घर लौट कर उस पन्ने को राहत बख्श दी..मैं नहीं जानता मेरे मित्र को नौकरी क्यो नहीं मिली...बस इतना जानता हूं के वो इमानदार थे.........

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